प्रथम खंड
:
20.
गिरफ्तारियों का ताँता
हम देख चुके हैं कि रामसुंदर पंडित की गिरफ्तारी सरकार के लिए मददगार साबित
नहीं हुई। दूसरी ओर अधिकारियों ने यह भी देखा कि कौम में उत्साह तेजी से
बढ़ने लगा है। 'इंडियन ओपीनियन' के लेखों को एशियाटिक विभाग के अधिकारी भी
ध्यान से पढ़ते थे। कौम की लड़ाई के संबंध में कोई भी बात कभी गुप्त नहीं
रखी जाती थी। कौम की कमजोरी और कौम की ताकत को जो भी जानना चाहता 'इंडियन
ओपीनियन' से जान सकता था - फिर वह शत्रु हो, मित्र हो या कोई तटस्थ व्यक्ति
हो। कार्यकर्ता आरंभ से ही यह समझ गए थे कि जिस लड़ाई में कोई गलत काम करना ही
नहीं है, जिसमें चालाकी अथवा धोखेबाजी के लिए कोई गुंजाइश ही नहीं है और जिस
लड़ाई में अपनी शक्ति के आधार पर ही विजय प्राप्त की जा सकती है, उसमें
गुप्तता का कोई भी स्थान नहीं हो सकता। कौम के स्वार्थ का ही यह तकाजा है
कि कमजोरी के रोग को यदि दूर करना हो, तो कमजोरी की परीक्षा करके उसे अच्छी
तरह जाहिर कर दिया जाए। जब एशियाटिक विभाग के अधिकारियों ने देखा कि 'इंडियन
ओपीनियन' इसी नीति पर चलता है, तब वह उनके लिए हिंदुस्तानी कौम के वर्तमान
इतिहास का दर्पण बन गया; और इसलिए उन्होंने सोचा कि जब तक कौम के अमुक नेताओं
को गिरफ्तार नहीं किया जाएगा तब तक लड़ाई का बल कभी टूट नहीं सकेगा। इसके
फलस्वरूप दिसंबर 1907 में कुछ नेताओं को अदालत में हाजिर होने की नोटिस मिली।
मुझे यह स्वीकार करना चाहिए कि ऐसी नोटिस देने में अधिकारियों ने सभ्यता
दिखाई थी। वे चाहते तो वारंट निकाल कर नेताओं को गिरफ्तार कर सकते थे। पर ऐसा
करने के बजाय उन्हें हाजिर रहने की नोटिस देकर अधिकारियों ने सभ्यता के साथ
साथ अपना यह विश्वास भी प्रकट किया था कि कौम के नेता गिरफ्तार होने को तैयार
हैं। निश्चित किए हुए दिन - शनिवार, ता. 28-12-1907 को - अदालत में जो नेता
हाजिर रहे थे उन्हें इस तरह की नोटिस का उत्तर देना था : 'कानून के अनुसार आप
लोगों को परवाने प्राप्त कर लेने चाहिए थे, फिर भी आपने प्राप्त नहीं किए।
इसलिए आपको ऐसा हुक्म क्यों न दिया जाए कि अमुक समय के भीतर आप ट्रान्सवाल
की सीमा छोड़ दें?'
इन नेताओं में एक सज्जन का नाम क्विन था, जो जोहानिसबर्ग में रहनेवाले
चीनियों का नेता था। जोहानिसबर्ग में 300-400 चीनी रहते थे। वे सब व्यापार करते थे या छोटी-मोटी खेती...
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