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धारावाहिक प्रस्तुति (10 मई 2019), मुखपृष्ठ संपादकीय परिवार

दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह का इतिहास
मोहनदास करमचंद गांधी

प्रथम खंड : 20. गिरफ्तारियों का ताँता

हम देख चुके हैं कि रामसुंदर पंडित की गिरफ्तारी सरकार के लिए मददगार साबित नहीं हुई। दूसरी ओर अधिकारियों ने यह भी देखा कि कौम में उत्‍साह तेजी से बढ़ने लगा है। 'इंडियन ओपीनियन' के लेखों को एशियाटिक विभाग के अधिकारी भी ध्‍यान से पढ़ते थे। कौम की लड़ाई के संबंध में कोई भी बात कभी गुप्‍त नहीं रखी जाती थी। कौम की कमजोरी और कौम की ताकत को जो भी जानना चाहता 'इंडियन ओपीनियन' से जान सकता था - फिर वह शत्रु हो, मित्र हो या कोई तटस्‍थ व्‍यक्ति हो। कार्यकर्ता आरंभ से ही यह समझ गए थे कि जिस लड़ाई में कोई गलत काम करना ही नहीं है, जिसमें चालाकी अथवा धोखेबाजी के लिए कोई गुंजाइश ही नहीं है और जिस लड़ाई में अपनी शक्ति के आधार पर ही विजय प्राप्‍त की जा सकती है, उसमें गुप्‍तता का कोई भी स्‍थान नहीं हो सकता। कौम के स्‍वार्थ का ही यह तकाजा है कि कमजोरी के रोग को यदि दूर करना हो, तो कमजोरी की परीक्षा करके उसे अच्‍छी तरह जाहिर कर दिया जाए। जब एशियाटिक विभाग के अधिकारियों ने देखा कि 'इंडियन ओपीनियन' इसी नीति पर चलता है, तब वह उनके लिए हिंदुस्‍तानी कौम के वर्तमान इतिहास का दर्पण बन गया; और इसलिए उन्‍होंने सोचा कि जब तक कौम के अमुक नेताओं को गिरफ्तार नहीं किया जाएगा तब तक लड़ाई का बल कभी टूट नहीं सकेगा। इसके फलस्‍वरूप दिसंबर 1907 में कुछ नेताओं को अदालत में हाजिर होने की नोटिस मिली। मुझे यह स्‍वीकार करना चाहिए कि ऐसी नोटिस देने में अधिकारियों ने सभ्‍यता दिखाई थी। वे चाहते तो वारंट निकाल कर नेताओं को गिरफ्तार कर सकते थे। पर ऐसा करने के बजाय उन्‍हें हाजिर रहने की नोटिस देकर अधिकारियों ने सभ्‍यता के साथ साथ अपना यह विश्‍वास भी प्रकट किया था कि कौम के नेता गिरफ्तार होने को तैयार हैं। निश्चित किए हुए दिन - शनिवार, ता. 28-12-1907 को - अदालत में जो नेता हाजिर रहे थे उन्‍हें इस तरह की नोटिस का उत्तर देना था : 'कानून के अनुसार आप लोगों को परवाने प्राप्‍त कर लेने चाहिए थे, फिर भी आपने प्राप्‍त नहीं किए। इसलिए आपको ऐसा हुक्‍म क्‍यों न दिया जाए कि अमुक समय के भीतर आप ट्रान्‍सवाल की सीमा छोड़ दें?'

इन नेताओं में एक सज्‍जन का नाम क्विन था, जो जोहानिसबर्ग में रहनेवाले चीनियों का नेता था। जोहानिसबर्ग में 300-400 चीनी रहते थे। वे सब व्‍यापार करते थे या छोटी-मोटी खेती...

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कुछ गाँव गाँव कुछ शहर शहर
(उपन्यास)
नीना पॉल

प्रवासी भारतीयों की एक बहुत बड़ी संख्या दुनिया भर में न सिर्फ रह रही है बल्कि भारत का मान भी बढ़ा रही है। रोजी रोटी की तलाश में लोग बाहर निकले और वे जहाँ गए वहीं के होकर रह गए। इसके बावजूद भारत और भारतीय संस्कृति उनके मन में एक तारे की तरह टिमटिमाते रहे। वस्तुतः जिसे हम प्रवासी साहित्य कहते हैं उसका सबसे बड़ा द्वंद्व ही यही है कि वह लगातार भीतरी और बाहरी मोर्चों पर सांस्कृतिक संघर्ष की स्थिति में बना रहता है। बाकी संघर्ष तो हैं ही। इस उपन्यास में एक परिवार है जो भारत से चला है और युगांडा में जाकर बस गया है। राजनीतिक स्थितियाँ कुछ ऐसी बनती हैं कि युगांडा में रह रहे भारतीय मूल के लोगों को बाध्य कर दिया जाता है कि वे तत्काल युगांडा छोड़ दें। चर्चित प्रवासी कथाकार नीना पॉल का यह उपन्यास एक ऐसे परिवार के संघर्षों की गाथा है जो युगांडा से निष्कासित होकर इंग्लैंड पहुँचता है और नए सिरे से खुद को खड़ा कर पाने की जद्दोजहद में जुट जाता है।

कहानियाँ
डॉग शो - दीपक शर्मा
नमस्‍कार नाना - मुकेश वर्मा
बेबी संजना की मुस्कराहट - मनोज रुपड़ा
सितारों पे डालती हूँ मैं कमंद - वर्तुल सिंह
पापा, तुम्हारे भाई - शिल्पी

संस्मरण
कबीर संजय
कभी औपचारिक नहीं होते थे कालिया जी

आलोचना
रवि रंजन
नवजागरणयुगीन हिंदी आलोचना और बालकृष्ण भट्ट

विमर्श
अर्चना त्रिपाठी
प्रतिबंधित कविताएँ जो चेतनशील हैं

विशेष
ज्योति कुमारी
फुरसत का कार्य क्षेत्र में हस्तक्षेप

भाषांतर - कहानियाँ
सुरेंद्र प्रकाश
बजूका
रोने की आवाज

कविताएँ
अवनीश गौतम
रवींद्र स्वप्निल प्रजापति

संरक्षक
प्रो. रजनीश कुमार शुक्‍ल
(कुलपति)

 संपादक
प्रो. अखिलेश कुमार दुबे
फोन - 9412977064
ई-मेल : akhileshdubey67@gmail.com

समन्वयक
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फोन - 09970244359
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संपादकीय सहयोगी
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ISSN 2394-6687

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